सहारनपुर का इतिहास अति प्राचीन है। गंगा-यमुना के दोआब पर बसे इस जनपद के समय के साथ-साथ नाम बदलते रहे है। सहारनपुर की वर्तमान स्थिति से उसके अतीत का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। उत्तर वैदिक काल में गंगा-यमुना के मध्य का यह क्षेत्र उशीनर कहलाता था। सप्तसैन्धव प्रदेश से चलकर आर्यों ने यमुना पार कर सबसे पहले जिसे अपना उपनिवेश बनाया था वह उशीनर सहारनपुर ही है। उन्हें न केवल यहां के मूल निवासियों से युद्ध करने पड़े बल्कि आर्यों के विभिन्न कबीलों में भी परस्पर युद्ध हुए। इन युद्धों के कारण उनके बीच से ही अनेक बड़े नेता बन गए और उनके साथ कई बडे़ समूह बन गए। कुछ समय बाद बड़े राज्यों का निर्माण हो गया। आर्यों और इस क्षेत्र के मूल निवासियों के संघर्ष का परिचय ऋग्वेद में मिलता है। आर्यो के बाद से इस जनपद का क्रमबद्ध इतिहास उपलब्ध है।
तदन्तर अनेक राजाओं के परस्पर युद्धों के बाद इस प्रदेश पर कुरुवंश का राज्य स्थापित हो जाने पर यह प्रदेश कुरु प्रदेश का भाग हो गया था जो क्रमशः कुरु जांगल और ब्रह्म ऋषि प्रदेश कहलाने लगा। सहारनपुर काफी समय तक कुरु प्रदेश के अंतर्गत ही बना रहा। छठी शताब्दी ईसा पूर्व के सोलह महाजनपद बहुत समय तक यथापूर्व स्थिति में नहीं रहे। गौतम बुद्ध के समय कौशल राज्य का विस्तार हिमालय से काशी तक हो गया था और वह महाकौशल के नाम से जाना जाने लगा था। अतः सहारनपुर जनपद बुद्ध के समकालीन महाकौशल के राजा प्रसेनजित् के अधीन रहा। कुछ समय बाद जब यह क्षेत्र पुनः कुरु संघराज्य के अंतर्गत आया तब यह यौधेय, उशीनर और स्रुघ्न जनपदों में बंटा हुआ था। स्रुघ्न जनपद पूर्व में गंगा तथा उत्तर में एक उच्च पर्वतमाला तक फैला हुआ था। यमुना नदी इसके मध्य में बहती थी। शाकंभरी देवी का मंदिर स्रुघ्न जनपद का सबसे बड़ा तीर्थस्थल था। शाकंभरी के निकट आज का बेहट और उस समय का वृहदहट महत्वपूर्ण नगर था।
इतिहासविद् डॉ. के के शर्मा ने बेहट, नकुड़ और देवबंद कस्बों का संबंध महाभारत काल से बताया है। यहीं पर पांडवों ने अपने वनवास का समय व्यतीत किया था। नकुड़ के संबंध में कहा जाता है कि इसे नकुल ने बसाया था। जिसे आज देवबंद कहा जाता है, उस समय इसे देववृंद कहा जाता था। महाभारत युद्ध समाप्ति के बाद पांचो पांडव इसी देववृंद से होकर हिमालय को गए थे। मैग्स्थनीज़ जिस मार्ग से भारत आया था वह भी सहारनपुर जनपद से होकर ही जाता था।
महावंश टीका और सत्यकेतु विद्यालंकार द्वार लिखित ‘चाणक्य’ में उल्लेख मिलता है कि चंद्रगुप्त और आचार्य चाणक्य नन्द से प्रथम बार पराजित होने के बाद कौशांबी से काम्पिल्य और शुक्र क्षेत्र होते हुए गोविनषान् और वहां से शिवालिक के साथ-साथ चलकर मायापुरी होते हुए शाकंभरी पहुंचे थे। यहीं पर बैठकर उन्होंने सेना का संगठन किया था। नंद को पराजित करने और पाटलीपुत्र पर अधिकार करने के बाद चंद्रगुप्त ने समस्त उत्तरी भारत पर अधिकार कर लिया था। उसने सभी गणराज्यों और जनपदों को मौर्य साम्राज्य में मिला लिया था। इस प्रकार स्रुघ्न जनपद भी मौर्य साम्राज्य में समाहित हो गया और सहारनपुर मौर्य साम्राज्य का अंग बन गया। अशोक के समय तक सहारनपुर मौर्य साम्राज्य का अंग बना रहा। सहारनपुर जनपद मौर्य साम्राज्य का हिस्सा था इसकी पुष्टि अशोक के उस शिलालेख से भी होती है जो खिजराबाद के टोपरी नामक स्थान से मिली थी और जिसे बाद में फिरोजशाह तुगलक दिल्ली ले गया था, जो आज भी फिरोजशाह कोटला में स्थित है। अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य साम्राज्य का पतन शुरु हो गया। मुद्राओं के साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद एक शताब्दी के भीतर ही यौधेय और कुणिंदों ने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली थी। प्रथम शताब्दी से चतुर्थ शताब्दी तक सहारनपुर जनपद यौधेय व कुणिंद जनपदों में बंटा रहा।
इसके बाद सहारनपुर 440 ई. से 528 ई. तक हूण, 554 ई. से 606 ई. तक कन्नौज के मौखरि वंश, 606 ई. से 647 ई. तक हर्षवर्धन के राज्य, लगभग 731 ई. से 750 ई. तक यशोवर्मन के राज्य, 760 ई. से 794 ई. तक आयुद्ध वंश के अधीन रहा। इसके बाद इस क्षेत्र में अराजकता फैल गयी और तब तक यह स्थिति रही जब तक कन्नौज पर गुर्जर प्रतिहार राजवंश का अधिकार नहीं हो गया। गुर्जर प्रतिहार राजवंश के राजा भोजदेव के सहारनपुर में मिले सिक्के इस बात का प्रमाण है कि यह गुर्जर प्रतिहार राजवंश के आधीन रहा है। सहारनपुर 836 ई. से 1018 ई. तक गुर्जर प्रतिहार राजवंश, 1018 ई. से 1033 ई. तक मुस्लिम आक्रमणकारियों, 1010 ई. से 1055 ई. तक भोज परमार, 1055 से 1089 तक कलचुरी राजवंश, 1089 से 1154 तक गहडवाल शासको और 1154 से 1192 तक चाहमान राजवंश के अधीन था और उशीनर ही कहलाता था। इसके बाद 1192 से 1526 तक सल्तनत काल, 1526 से 1707 तक मुगलकाल, 1707 से 1716 तक सिखों, 1712 से 1739 तक बराह सैय्यदों के अधिकार में रहा। 1748 से 1770 तक नजीबुद्दौला,उसकी मृत्यु के बाद 1770 से 1785 तक उसका पुत्र जबीता खां, उसकी मृत्यु के पश्चात 1785 से 1789 तक उसका ज्येष्ठ पुत्र गुलाम कादिर सहारनपुर का नवाब रहा। गुलाम कादिर की मृत्यु के बाद मराठों ने इस क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया, सहारनपुर मराठा राज्य का उत्तरी जिला बन गया। 1789 से 1803 तक सहारनपुर पर मराठों का शासन रहा। 30 दिसंबर 1803 से ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से अंग्रेजों ने यहां अपने पैर जमाने शुरु किये और इस तरह सहारनपुर भी देश के अन्य हिस्सों की तरह 1947 तक अंग्रेजों के आधीन रहा।
सहारनपुर के सरसावा, देवबंद, नकुड़, गंगोह, रामपुर मनिहारान, अंबहेटा, व बेहट आदि क्षेत्रों में जमीन के नीचे काफी इतिहास दबा पड़ा है। इतिहास के लंबे प्रवाह में प्राचीन अभिलेखों के अतिरिक्त समय-समय पर उत्खनन के दौरान प्राप्त सिक्के भी जनपद के इतिहास के संबंध में प्रमाणिक साक्ष्य देते हैं। सिक्कों पर अंकित राजाओं की वेशभूषा, आकृतियां और अन्य चित्र उनके सामाजिक क्रिया कलापों को दर्शाती है। सहारनपुर जनपद में मिलने वाले प्राचीन सिक्के यहां आदिकाल से मनुष्य निवास की पुष्टि करते हैं। कन्याकुमारी से लेकर अफगानिस्तान तक पाये जाने वाले चांदी के पंचमार्क सिक्के सहारनपुर में भी मिले है। इनका काल लगभग 600 ई. पूर्व माना गया है। कनिंघम ने इन्हें 1000 ई. पूर्व तक का माना है। यहां मिलने वाले कुछ सिक्कों पर मौर्यों का चिह्न भी मिला है। सहारनपुर में कुछ सिक्के मिलिंद के भी मिले है। इसके अलावा बेहट क्षेत्र से कैप्टन कोटले को कुणिन्द व यौधेय गणराज्य के सिक्के भी मिले थे।
इसके अतिरिक्त कुषाण राजाओं के सिक्के, समुद्रगुप्त व चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के सिक्के, हूण व ससैनियन के सिक्के,रघुवंशी राजा भोजदेव के सिक्के, काबुल के ब्राह्मण राजा सपलपति देव व सामंतदेव के सिक्के और कभी कभी पृथ्वीराज चौहान के सिक्के यहां मिले हैं। मुगल शासकों में मुहम्मद गौरी, मुहम्मद तुगलक, शेरशाह सूरी के सिक्कों के अलावा बाबर, हुमायंू, अकबर, जहांगीर, शाहजहां, औरंगजेब, शाहआलम आदि सभी मुगलबादशाहों के सिक्के यहां मिले है। इन सिक्कों के जनपद के विभिन्न क्षेत्रों में प्राप्त होने से भी इस जनपद के प्राचीन इतिहास और संस्कृति की जानकारी मिलती है।
समय-समय पर हुए पुरातत्व सर्वेक्षणों और खुदाई के दौरान सहारनपुर जनपद में विभिन्न संस्कृतियों के अवशेष प्राप्त हुए है। प्राप्त सामग्री के आधार पर सहारनपुर जनपद की प्राचीन तिथि ईसा पूर्व दो हजार वर्ष और उसके आस-पास आंकी जा सकती है। इस जनपद में सिंधु सभ्यता के पूर्ववर्ती काल, सिंधु सभ्यता, सिंधु सभ्यता का अंतिम चरण, गेरुए रंग के मृद भाण्ड वाली संस्कृति, ताम्र संस्कृति और चित्रित धूसर मृदभाण्ड वाली संस्कृति के अवशेष मिलते है। वर्ष 2016 में सहारनपुर की रामपुर मनिहारान तहसील के सकतपुर गांव में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ ) द्वारा कराये गए उत्खनन में गंगाघाटी की सभ्यता का कालक्रम मिला है। यहां तांबे की कुल्हाड़ी, मृदभांड, भट्टियों आदि के जो अवशेष पाये गए उन्हें जांच के लिए फ्लोरिडा (अमेरिका) भेजा गया था। जांच में ये ईसा पूर्व करीब 2000 साल पुराने यानि हडप्पा के ही समकालीन बताये जा रहे हैं। यहां मिले पुरावशेषों के आधार पर एएसआइ का दावा है कि हड़प्पा और गंगा घाटी के लोगों के बीच व्यापारिक व सांस्कृतिक सम्बंध रहे हैं।
यद्यपि सहारनपुर को अपना वर्तमान नाम सहारनपुर, मुगल सम्राट अकबर के शासन काल में प्राप्त हुआ। लोकोक्ति है कि करीब साढ़े छह सौ बरस पहले सहारनपुर में निवास करने वाले एक सूफी शाह हारुन चिश्ती के नाम पर इस नगर का नाम सहारनपुर पड़ा है। कहा जाता है कि शिवालिक पर्वत के राजाओं के विद्रोह को दबाने के लिए जब 1340 में मुहम्मद बिन तुगलक उत्तरी दोआब में आया तो उसे पता चला कि एक सूफी संत पांवधोई नदी के किनारे पड़ाव डाले हुए हैं, वह उनसे मिलने वहां गया और वहीं पर उसने आदेश दिये कि उस स्थान का नाम सूफी संत शाह हारुन चिश्ती के नाम से जाना जाए। उसी के बाद से इस स्थान का नाम पहले शाहरुनपुर और बाद में सहारनपुर हो गया। शाह हारुन चिश्ती की मजार यहां बाजार दीनानाथ में स्थित है। लेकिन इस लोकोक्ति की पुष्टि उस समय के इतिहासकारों द्वारा नहीं होती। जियाउद्दीन बर्नी की तारीखे फिरोजशाही, इब्ने बतूता के यात्रा विवरण, याहिया बिन अहमद सिरहिन्दी की तारीखे-मुबारकशाही, मीर मुहम्मद मासूम की तारीखे सिंध, सैय्यद अतहर अब्बास रिजवी की ‘तुगलक कालीन भारत’ आदि पुस्तकों में कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं मिलता कि मौहम्मद तुगलक, हारुन चिश्ती से मिलने सहारनपुर आया था।
इतिहासविद् डॉ.के.के.शर्मा के मुताबिक अकबर पहला मुगल शासक था जिसने सहारनपुर में नागरिक शासन स्थापित किया था। उससे पूर्व दिल्ली सल्तनत और मुगलों के शासन काल में सहारनपुर का क्षेत्र सीधे दिल्ली सूबे के अंतर्गत था या मेरठ द्वारा शासित होता था। अकबर ने सहारनपुर को दिल्ले सूबे के तहत ‘सहारनपुर सरकार’ का मुख्यालय बनाया और यहां एक गवर्नर नियुक्त किया। सहारनपुर की जागीर राजा सहारनवीर सिंह को दी गई, जिसने सहारनपुर शहर को बसाया। सहारनपुर उस समय एक छोटे गांव सरीखा था जिसका प्रयोग सैनिक छावनी के रुप में किया जाता था। फिरोजगाह के सामने का सारा मैदान सिग्रेट फैक्ट्री तक सैनिकों की तीरंदाजी के अभ्यास के लिए रहता था। उस समय सहारनपुर नगर की निकटतम बस्ती शेखपुरा और मल्हीपुर हुआ करती थी और अधिकांश भाग जंगलों से घिरा हुआ था। उस समय पांवधोई नदी, ढमोला और क्रेगी नाला, जिसे आज गंदा नाला कहा जाता है, दलदली मिट्टी के साथ पानी से भरे हुए थे, जबकि रायवाला एक बहुत बड़ा जोहड़ था और उसकी जलवायु नम और मलेरिया युक्त थी।
राजा साहरनवीर सिंह ने जिस सहारनपुर को बसाया था वह पांवधोई किनारे नखासा बाजार, रानी बाजार, शाहबहलोल व लक्खीगेट आदि मौहल्लों से घिरा हुआ था और बाजार दीनानाथ व मौहल्ला चौंताला आदि उसमें शामिल थे। पूरे सहारनपुर शहर के चारों तरफ चारदीवारी थी और उसके चार दरवाजे थे। एक-सराय दरवाजा,दूसरा-माली दरवाजा,तिसरा-बूडिया दरवाजा और चौथा लक्खी दरवाजा। मौहल्ला चौधरियान में राजा सहारनवीर का किला था, जिसके चिह्न कुछ समय पहले तक मौजूद रहे है। उनके वंशज आज भी सहारनपुर में निवास करते हैं। अकबर के शासनकाल में सहारनपुर जनपद में दो टकसाल तांबे के सिक्के बनाने के लिए स्थापित की गई थी, इनमें एक सहारनपुर शहर में और दूसरी उस समय सहारनपुर का हिस्सा रहे हरिद्वार में स्थापित की गई थी। सहारनपुर जनपद अकबर के शासनकाल में सबसे खुशहाल जनपद था और यह राज्य का अन्न भंडार कहलाता था।
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